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वसन्त / फ़्योदर त्यूत्चेव

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धरती का प्रेम और वर्षभर का सौन्दर्य
समस्त सुगन्धियों सहित हमें सौंपता है वसन्त,
रचनाशीलता को प्रोत्साहन देती है प्रकृति
और पुत्रों को भेंट करती है मिलन के अवसर !...

ईश्वर के जीवन-संचार करते स्वरों
और प्रकृति के विजयोल्लास की तरह
हृदय भर जाता है ख़ुशियों से
और जीवन-ऊर्जा और स्वतन्त्रता का
संचार होने लगता है हमारे भीतर !...

कहाँ हो तुम, ओ सामंजस्य-पुत्रो ?
चले आओ इधर, इन ऊँघते तारों का
स्पर्श करो अपनी साहसी उँगलियों से
प्रेम, हर्ष और वसन्त की जिन्हें
सहला रही हैं उज्ज्वल किरणें ।...

प्रातः के प्रथम युवा आलोक में
अपनी समस्त आभा में जैसे
खिल और जल रहे हों गुलाब
और उदारता से उँड़ेल रही हो मधुर गन्ध
मन्द समीर अपनी उमंगपूर्ण उड़ान में,

इसी तरह तुम भी बहि, ओ जीवन-माधुर्य,
गायको, हम चले आएँगे तुम्हारे पदचिन्हों पर !
इसी तरह उड़ता रहे, मित्रो, हमारा यौवन
सुखों के उज्ज्वल पुष्पों की दिशा में !...

ओ मेरे गुरुओ, अस्वीकार न करना
कृतज्ञ प्रेम की यह तुच्चा भेंट --
एक सुगन्ध रहित साधारण-सा फूल,
इसी तरह माँ की गोद में ला रख देता है
असहाय शिशु अपने प्रेम का प्रतीक --
अपने हाथों उपवन में तोड़ा फूल ।

रचनाकाल : 1821