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वातास / बरीस पास्तेरनाक
Kavita Kosh से
यह मेरा अंत है किंतु तुम जिए जाओ ।
कराहता और विलाप करता हुआ वातास
आंदोलित करता है घर को और वन-प्रांतर को ।
कोई भी चिनार वृक्ष पृथक-पृथक नहीं
बल्कि सम्पूर्ण वन सम्पृक्त होकर
अंतहीन क्षितिज के साथ
किसी खाड़ी में लंगर डाल कर
खड़े केलि-पोतों के संयुक्त उदर-काय-सा
उठता गिरता दिखता है ।
वातास उन्हें कलुष-भाव से नहीं
और न किसी उद्देश्यहीन क्रोध के वश में होकर,
बल्कि आंदोलित करता है
अपनी मर्म-पीड़ा से तुम्हारे हेतु
खोज निकालने को कुछ शब्द--
एक लोरी के लिए ।
अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह