वास्तविक जीवन की भाषा / अंशु मालवीय
हम गांव
अवधी बोलते थे
पढ़ते हिन्दी में थे,
शहर आए तो
हिन्दी बोलने लगे
और पढ़ने लगे अंग्रेज़ी में.
रिश्ते-नाते
दरद-दोस्त हिन्दी में
कागज-पत्तर बाबू-दफ़्तर
सब अंग्रेज़ी में;
बड़ा फ़र्क हो गया हमारे वास्तविक जीवन की भाषा
और बौद्धिक जीवन की भाषा में.
वे प्रचार करते थे हिन्दी में
हम वोट देते थे
रोज़मर्रा की जिन्दगी की चिन्हानी पर,
वे करोड़ों के खर्च पर चलने वाली संसद में
चंद लोगों की भाषा बोलते थे,
बड़ा फ़र्क है गण और तंत्र की भाषा में.
हम काम करते हैं,
एक हाथ को पड़ती है दूसरे की ज़रूरत,
हर हाथ बोलता है करोड़ों हाथों की भाषा में,
जिस भाषा में बनती है उत्पादन की सामूहिक कविता
जो कुछ लोगों के फ़्रेम में जड़ दी जाती है.
स्वतंत्रता और विविधता के पक्षधर
हज़ारों लाखों भाषा-बोलियों को मार कर रचते हैं
अन्तर्राष्ट्रीय भाषा.
बड़ा फ़र्क है पैदा करने और खाने की भाषा में
'हैय्या हो' बाहर बैठा दिया जाता है दरवाज़े के
और अघाई हुई डकारें
हमारी वास्तविक राष्ट्रभाषा बन जाती हैं.