विजयिनी शरत / ऋतु रूप / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
आखिर शरत केॅ की कहियै!
सुकुमारी किशोरी?
या देवी, महादेवी?
आखिर शरत केॅ की कहियै!
कल तांय ही
जे रं कि मदोॅ सेॅ मातलोॅ
खूरोॅ सेॅ खोरचै छेलै माँटी केॅ साँढ़
वहू नरमैलोॅ छै हेनोॅ
जेना बसाहा बरद रहेॅ
शरते सुकुमारी के कारणे नी।
आवै छै खेतोॅ सेॅ गन्ध
पकलोॅ सब धानोॅ के शीशोॅ
महमह लुटावै सुगन्ध
केकरोॅ ठो हाँक सुनी
है रं झुकी गेलौ छै
आरी पर गोड़पड़िया देले?
के बतैतै?
शरते सुकुमारिये नी!
ई शरत। देविये रं लागै
आकि महादेवी के सखिये टा
तभिये तेॅ ऐली छै माय दुर्गा
शरत सुकुमारी के हाँक पर।
तुतरू आ तुरही
गीत-नाद, जागै छै मंडप-मनौन
चारो तरफ हँसी खुशी
किलकारी के रौन।
मुस्कै छै मंडप पर भगवती
हुन्नें नद्दी किनारी मेॅ
पर्वत पर, खेतोॅ-बहियारी मेॅ
शरतो सुकुमारी।
के बुझतै ई रहस्य
कैन्हें छै एक्के ठो काल मेॅ
शान्ति के साथे ही शोरगुण
तेॅ राग विराग भी।
कुछ-कुछ जों बूझै छै तेॅ खाली अड़हुल
आरो ई कास-वन
बाकी तेॅ देवी कुमारी
ई शरते सुकुमारी।