भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विजोग / सत्यप्रकाश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ कुण सुहागण,
आ कुण विजोगण,
ऊंची मेड़ी पंथ निहारै !
रतनदीवां री जोत
नैणां रा मोती वारै,
ढळती किरत्यां नै पूजै।
डूंगर ढळियै चांद नै चितारै !

मत पछाड़ां खाव विजोगण,
तोड़ मत वीणा रा तार,
मत चूंनड़ी रौ सिणगार उतार।
कुण जांणै थारी मीट रै पार
घणौ कोडीलौ, घणौ उमायौ
थारै हिवड़ै रौ भरतार,
अंधारौ डाकतौ आवै !

थारै नैणां रौ विजोग
म्हारै हिवड़ा री दाझ !
थारी बळती निसांसां
म्हारै काळजियै री लाय !
मत पछाड़ां खाव विजोगण,
थारै सारू
म्हैं सूरज नै रोकूंला,
चांद नै ढाबूलां,
तारां नै बांधूलां।
मत कुरळा ऐ चकवी,
क्यूं आंसूड़ा ढाळै !

थारी खातर
म्हैं सिंझ्यां ने रोकूंला,
म्हैं सूरज नै बांधूंला,
थारै नैणां रौ विजोग
म्हारै हिवड़ा री दाझ !
थारी बळती निसांसां
म्हारै काळजियै री लाय !
थारा चकवा नै बिछड़ण दूं कोनी
मत कुरळा ऐ चकवी,
मत आंसूड़ा ढाळ।

भौळा पपैया क्यूं कुरळावै,
म्हारी उमस बण कांठळ आवै,
थारी तिरस म्हारौ कंठ सुखावै,
थारी बळती दाझ बुझाऊं
तद म्हैं जनम जनम सुख पाऊं।

ऐ चकोरी बादळी,
क्यूं तिणगां रौ चूण करै !
थूं क्यूं नैणां नीर भरै !
थारै खातर
किरणां नै लाऊंला,
थारी बळती निसांसा
म्हारै काळजियै री लाय !
थूं मत आंसूड़ा ढाळ !
ऐ झरणा तड़फै,
नदियां नै मरोड़ लाऊंला !
ऐ नदियां कळपै,
हथेळियां समंद बणाऊंला !
ऐ भवरा सिसकारै,
कण कण में फूल उगाऊंला !