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विदा / रघुवीर सहाय

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विदा, बन्धु, विदा
कातर अन्तर-आत्मा
विचलित परमात्मा में श्रद्धा
विदा आप को भी, परन्तु प्रिय—
                सकुशल पहुँचने की दीजिएगा पाती
यह भी लिखिएगा कि याद मेरी आती
                      भी है कि नहीं ।

अगम अगोचर जो जग का पालनकर्ता
वह क्या खा कर दुख देता या दुख हरता
आप मेरे प्रशंसक थे, गुणग्राहक थे
                   —आप से था डरता
आप को भी विदा ।
मिटे तो किसी भाँति यह दुविधा ।
विदा, बन्धु, विदा ।