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विदा गीत / केदारनाथ सिंह

     रुको, आँचल में तुम्हारे
     यह समीरन बाँध दूँ, यह टूटता प्रन बाँध दूँ ।
एक जो इन उँगलियों में
कहीं उलझा रह गया है
     फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ !

फेन-सा इस तीर पर
     हमको लहर बिखरा गई है !
हवाओं में गूँजता है मन्त्र-सा कुछ
साँझ हल्दी की तरह
     तन-बदन पर छितरा गई है !
पर रुको तो —
पीत पल्ले में तुम्हारे
     फ़सल पकती बाँध दूँ !
     यह उठा फागुन बाँध दूँ !

’प्यार’ — यह आवाज़
     पेड़-घाटियों में खो गई है !
हाथ पर, मन पर, अधर पर, पुकारों पर,
एक गहरी पर्त
     झरती पत्तियों की सो गई है
रहो तो,
रुँधे गीतों में तुम्हारे
     लपट हिलती बाँध दूँ !
     यह डूबता दिन बाँध दूँ !


धूप तकिये पर पिघलकर
     शब्द कोई लिख गई है,
एक तिनका, एक पत्ती, एक गाना —
साँझ मेरे झरोखे की
     तीलियों पर रख गई है !
पर सुनो तो —
खुले जूड़े में तुम्हारे
     बौर पहला बाँध दूँ !
     हाँ, यह निमन्त्रण बाँध दूँ !