रुको, आँचल में तुम्हारे
यह समीरन बाँध दूँ, यह टूटता प्रन बाँध दूँ ।
एक जो इन उँगलियों में
कहीं उलझा रह गया है
फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ !
फेन-सा इस तीर पर
हमको लहर बिखरा गई है !
हवाओं में गूँजता है मन्त्र-सा कुछ
साँझ हल्दी की तरह
तन-बदन पर छितरा गई है !
पर रुको तो —
पीत पल्ले में तुम्हारे
फ़सल पकती बाँध दूँ !
यह उठा फागुन बाँध दूँ !
’प्यार’ — यह आवाज़
पेड़-घाटियों में खो गई है !
हाथ पर, मन पर, अधर पर, पुकारों पर,
एक गहरी पर्त
झरती पत्तियों की सो गई है
रहो तो,
रुँधे गीतों में तुम्हारे
लपट हिलती बाँध दूँ !
यह डूबता दिन बाँध दूँ !
धूप तकिये पर पिघलकर
शब्द कोई लिख गई है,
एक तिनका, एक पत्ती, एक गाना —
साँझ मेरे झरोखे की
तीलियों पर रख गई है !
पर सुनो तो —
खुले जूड़े में तुम्हारे
बौर पहला बाँध दूँ !
हाँ, यह निमन्त्रण बाँध दूँ !