विनिमय / विमल राजस्थानी
वासव के विसाल रथ की ध्वनि से गुंजित मथुरा है
हर पुरवासी विस्मय में हैं, चौंका, डरा-डरा है
क्या वासव मथुरा तज कर अन्यत्र प्रयास करेगी !
यों कठोर हो, बोलो, क्या वह सब के प्राण हरेगी !!
किन्तु, नगर के मध्य भाग मे रथ को मुड़ते लख कर
पाया अतिशय तोष, स्वाति की अलभ बूँदे को चख कर
चिन्ता-मुक्त, हर्ष-ध्वनियों से गूँजी मथुरा सारी
रस-वर्षण हो रहा, तिरोहित विरहानल-चिनगारी
उमड़ी भीड़, तरंगे जैसे उमड़ सिन्धु-तट चूमें
लगे नाचने पुरवासी ज्यों चक्र चाक पर घूमे
कई दिनो का विरह कि जैसे कोटि कल्प बीते हैं
हृदय-कलश गायन-नर्तन के मधुरस से रीते हैं
प्रर्दशनी-स्थल पर आ कर सुरथ रुक गसा ऐसे
धरती पर आकाश सूर्य के साथ झाुक गया जैसे
उतर सुरथ से वासव मेघों में विद्युत-सी चमकी
पा कर झालक खिलीं आकृतियाँ, दूनी-दूनी दमकी
शिल्पकार ने आगे बढ़ कर, स्वागत किया ललक कर
चरणो पर चू पड़ा हृदय से मधु रस छलक-छलक कर
घूम-घूम कर लगी देखने कृतियाँ अतिशय सुन्दर
हाकती रही विमुग्ध निरक्ष कर कृति प्रत्येक मनोहर
मूर्तिकार समझाता चलता था विशेषता सब की
एक मूर्ति के सम्मुख वासव विस्मित होकर ठमकी
मूर्ति एक षोड़शी सुहागिन की थी सब से सुन्दर
सिर पर घट, काटे पर कर, नख-शिख आकर्षण अति मनहर
लगा कि जैसे उतर स्वर्ग से रंभा भू पर आयी
पृथुल जांघ, कटि क्षीण, वक्ष से फूट रही तरुणाई
देहयष्टि ऐसी कि दृष्टि को बाँधे रहे निरंतर
राम-रोम से निःसृत होते हों ज्यों रस के निर्झर
मंत्र-मुग्ध हो वासवदता निरख-निरख न अघायी
बहुत देर क बाद कंठ फूटा, थोड़ी मुस्कायी
पूछा-क्या है मूल्य ? मुझे यह रूप बहुत भाया है
संभवतः यह आकर्षण ही मुझे खींच लाया है
मूर्तिकार ने विहँस कहा-‘‘यह मूर्ति बहुत मँहगी है
अन्य मर्तियाँ मोरपंख तो यह सिर की कलगी है‘‘
उत्तर मिला-‘‘मूलय मुँहमाँगा शिल्पी! तुम पाओगे
देने को असीम है, लेते-लेेते थक जाओगे‘‘
मूर्तिकार के निकट वेदना-सिन्धु सिमट आया था
उसकी आँखो में करुणा का ज्वर उमड़ छाया था
जन-जन के मन-मन का हाहाकार बटोरे उर में
वह खो गया भुवन-सुप्रिया के मृदु सुर में, नूपुर में
बोलो-‘‘दो-दो वचन कि जो चाहूँगा सो पाऊँगा
मन वांछित पा मूल्य, सूयश मैं निश्चसय ही गाऊँगा‘‘
चकित रह गयी वासवदता, सम्मुख जटिल पहेली
रत्नाभूषण नहीं, वचन दूँ, यह कैसी अठखेली
ज्ञात नहीं, क्या माँगेगा शिल्पी, कैसे हाँ कह दूँ
मन की तरी अरी! इस क्षण अनुकुल दिशा में बह तूँ
किन्तु, नहीं ऐसा कुछ भी तो देय नहीं जो होगा
महल, अटारी, रत्नाभूषण सब कुछ अतिशय भोगा
इनसे अधिक और क्या माँगेगा शिल्पी बोलो तो
कितनी बड़ी माँग श्पिल्पी की, निर्भय हो, तोलो तो
वासव सस्मित बोली-‘‘शिल्पी! दिया वचन लो मैंने
उड़ो जहाँ तक उड़ना हो, नभ में, फैलाअसे डैने‘‘
वचन प्राप्त कर शिल्पी ने झट माँग लिया-मुस्काना,
गाना, पुनः नृत्य करना, जन-तन के प्राण जुड़ाना
जितनी भी याचना नम्र जन-मन में हो सकती
जितनी भी नम्रता प्रार्थना सुख से ढा़े सकती है
अनुनय और विनय जितना चरणो में झुक सकता है
अश्रु-वेग तट-बंध पलक में जितना रुक सकता है
सभी समेट-बटोर कलापति सम्मुख झुका खड़ा था
वासव के सम्मुख हिमाद्रि-सा शिल्पी अचल खड़ा था
मूर्तिकार के रोम-रोम से निःसृत थी स्वर लहरी
‘‘प्रेम स्वार्थी नहीं, प्रेम की गंगा तो अति गहरी
लहरो का संगीत अतल-तल से फुटा करता है
प्रेम लुटाता है उल्लास नहीं लुटा करता है
है अधिकार प्रेम को क्या मुस्कान छीन लेने का
उसने पढ़ा पाठ बस, केवल देने ही देने का
जिसका हृदय विशाल, समाहित जिसमें सकल भुवन हो
डबडब आँखे देख-विकल अकुलात जिसका मन हो
नहीं एक का, जो समग्र त्रिभुवन का हो जाता है
सकल चराचर के सुख-दुख चिन्तन में खो जाता है
सच्चा प्रेमी कहलाने का सुयश लुट लेता है
व्यथा-सिन्धु में डूब,विश्व का मणि-मुक्ता देता है
स्वार्थ न कुछ सकता विराट का भाव समाये मन को
सहज समर्पित का देता जीवन जग के जीवन को
जन-आँसू की गंगा में निज व्यथा घोल देताहै
भूल स्वयम् का दुख, सुखका जयकार बोल देता है‘‘
पर यह बात लगी वासव को जैसे तीर चुभा हो
लगा कि जैसे घोर तिमिर पी गया समग्र प्रभा हो ष्
जैसे झंझावत मूल तक नव तरु को झकझोरे
तोड़-फोड़ तट-बंध, बहा दे गिरि, वन जल-हिलकोरे
भीतर तक गयी विदग्धा वासव विवश बिचारी
वचन नहीं, यह सूखे तृणमें उछल गिरी चिनगारी
कितनी गहरी पीर सँजोये है आहत अंतर में
क्या जाने कोंकणी कि उसके गरल बुझा है शर में
आर-पार हो गया हृदय के, लगी न पल भर देरी
झरे अश्रु-फल, गयी पीर-तरु की फुनगी झकझोरी
सोच रही वासव-शिल्पी रत्न-राशि माँगेगा
आशा थी न स्वप्न में यों यह सूली पर टाँगेगा
मन में नहीं शांति, जीवन तब व्यथा भार ढ़ोता हो
धधक रही प्रमाग्नि,दाह तीखा-तीखा होता हो
आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु,तब आँसू बन रह जाये
तीवन की धुल जाय पांडु-लिपि, कोरी ही बह जाये
शून्य-शून्य बस शून्य-शून्य ही चारो ओर घिरा हो
मणि-मुक्ता, हीरे-पन्ने सब व्यर्थ, रेत के कण हैं
पुःन नाचना, गाना मरे लिए नितान्त कठिन था
किसके लिये बिच्दुओं-से बिछुए पावो के बाँधू
शिशु-सर्पो से तार विषैले, पुलक, बीन के साँधू
यह तो नहीं के मेरे स्वर हैं बँधे बद्ध कीरों-से
या कि बंदिनी बनी, घिरी हूँ प्रस्तर-प्राचीरों से
नाँचू किसके लिये, ओह! किसके हित मैं गाऊगी
कैसे मैं अपने से अपने को छल पाऊँगी
बँधी-क्षीण आशा की डोरी, प्राण पतंग बने हों
व्यथा-वेदना के जीवन में छाया मेघ घने हों
जो नख-शिख आँसू में डूअी,वह कैसे गायेगी!
कैसे नाचेगी! कैसे वह चैन भला पायेगी!
एक ओर उर-ताप, दुसरी ओर वचन-बंधन है
बड़ी कठिन है घड़ी, भार पीड़ा का बहुत सघन है
सब कुछ तो लुट चुका, वचन ही तो मेरा सम्बल है
आशा हुई न क्षीण, वचन ही का तो केवल बल है
यदि मैं करती वचन-भंग तो क्या सोचेगा योगी ?
वह तो नहीं प्रेम का मारा, वह तो नहीं वियोगी
दिया वचन भिक्षुक ने, निश्चय ही मुझ तक आयेगा
नहीं स्वप्न में भी असत्यवादीर होना चाहेगा
वचन तोड़ती हूँ अपना, झूठी कहलाऊँगी
अपनी ही आँखो में गिर करर उसे नहीं पाऊँगी
निश्चय ही झूठी कह कर वह मुझे टाल जायेगा
तब क्या मेरा प्राण देह में क्षण भर टिक पायेगा
मेरा तो गन्तव्य एक है, एक ध्येय है मेरा
भ्ज्ञिक्षुक ही मेरा तन-मन-धन, श्रेय-प्रेय है मेरा
संभव है झाँकी पा जाऊँ प्रिय की आते-जाते
एक झलक के लिए प्राण छटपट करते, अकुलाते
दुहरा लाभ मिलेगा, वचन निभेगा, दृष्टि मिलेगी
द्रवित कही होगा भिक्षुक तो निर्झरणी उछलेगी
हो सकता है प्रेम-वारि के छींटे तृषा बुझा दें
अश्रु-यज्ञ पूरा होने की कोई राह सुझा दें
मात्र वचन के प्राण-तंतु से बँधा हुआ है जीवन
वचन! अहा! तू ही तो मेरा साँसो का अवलम्बन
कल्प सराखे बीत रहे जो करुण प्रतीक्षा के क्षण
वचन! बना है तू ही जो तब तक मेरा जीवन-धन
वचन पकड़ कर बाँह प्रेम की, खड़ा हो गया आगे
एक-एक कर टूटे-बिखरे ज्यों त्यों चिन्ता-धागे
ऊहापोह मिटी, निश्चय का फूटा ओज हृदय से
वासव की हर साँस बँध गयी, कस कर वचन-वलय से
अपने भिक्षुक-हेतु पुनः मैं नाचूँगी-गाऊँगी
जीवित शव-सी इस सूली पर, हँस कर, चढ़ जाऊँगी
प्रेम-शिखर पर चढ़े वचन की फहरी विय-पताका
अधरों पर स्मिति, स्वीकृती का चिहन् नयन का झाँका
बजी दुन्दुभी, रोर मचा गया,हर्ष छा गया ऐसा
मथुर में पाया न सुहृद था मूर्तिकार के जैसा
परदेशी था, किन्तु, लगा ज्यों जनम-जनम का अपना
सत्य हो गया आज नगर के घर-घर का सुख-सपना
कल से फिर वासव नाचेगी, कूकेगी, गायेगी
प्राण-प्राण में, रोम-रोम में सब के रम जायेगी
अहा ! धन्य हो कोंकणवाणी ! जय हो, जय हो, जय हो
तुम पर बोधित्सव की करूणा बरसे देव सदय हो