विमला की यात्रा / सविता सिंह
उसे जाना है आज शाम चार बजे रेलगाड़ी से
जाना है पति के घर से इस बार पिता के घर
एक घर से दूसरे घर जाते हैं वही
नहीं होता जिनका अपना कोई घर
बारह साल की उम्र में
विमला ब्याह दी गयी
जब वह गयी पति के धर पहली बार
उस घर को उसने बनाया अपना
लीप-पोत कर चमकाया उसे
कूट-पीस कर हमेशा इकट्ठा किया और रखा
साल-भर का अनाज
धोये सबके पांव
सिले सबके उधड़े-फटे कपड़े
कहते हैं पति का घर होता है पत्नी का घर
इस बार लेकिन विमला को जाना है दुख की ऐसी यात्रा पर
जिसके पार उतर
जीवन स्वयं अपने पार उतरता है
दुख से मिल दुख
किसी उजाड़ में जा भटकता है
पति की मृत्यु के बाद औरत का जैसे संसार बदलता है
सुबह से ही ठीक कर रही है विमला
अपने कपड़े
संभाल रही है कसीदारीकारी के लकड़ी वाले फ्रेम
रेशम के आधे-अधूरे
उलझे-सुलझे धागे
वे कपड़े जिन पर काढ़ रखे हैं उसने वे सारे फूल
जिन्हें प्रकृति भी नहीं खिलाती
वे फूल जो अमर होते हैं
और सिर्फ स्त्री के हृदय में खिलते हैं
या फिर विमला के लिए
चुपचाप उसके गुमसुम संसार में
पति की मृत्यु के बाद
आज शाम चार बजे
विमला जा रही है अपने पिता के संग
कुछ दिनों के लिए बहलाने मन
वह जा रही है रेलगाड़ी से एक ऐसी यात्रा पर
जिसमें कहीं नहीं आता उसका अपना घर
मन ही मन इसलिए वह मानती है
हे ईश्वर वर हों जीवन में मेरे ऐसी यात्राएं अब कम
हो मेरा एक ही जीवन
एक अपना घर
जेसे मेरी एक आत्मा।