विराट मानव चित्त में
अकथित वाणी पुंज
अव्यक्त आवेग से आवर्तन करता है
काल से कालान्तर में
नीहारिका सम महाशून्य में।
वाणी वह मेरी मनः सीमा के
सहसा आघात से होकर छिन्न
धनीभूत हुई है रूप के आकार में,
मेरे रचना कक्ष पथ में।
‘उदयन’
प्रभात: 5 दिसम्बर, 1940