विलोम / अनुराधा सिंह
प्रेम जंगली कबूतर के पंखों सा निस्सीम
छोड़ जाता है हमारे हाथ में अपना रोंयेदार स्पर्श
मैंने जब उससे दूर जाना चाहा चीज़ें उसके साथ ही छूटने लगीं
एक अतीत था जो बंधा था इस छोड़े जाते पल से
और अपने तमाम अतीतों से जब हम साथ भी नहीं थे
उसे छोड़ देना अपने पूरे जीवन को दोफाड़ कर देना था
इसी मुश्किल की आसानी से हम जुड़े रहे इतने साल
कि वह पूरा पाकर भी उंगली छूते डरता रहा
उंगली छूते ही पूरा पा लेने का अभ्यास दोहरा बैठता
न होना स्वीकार्य नहीं था उसे
होने से डरता था
बहुत स्त्री होने पर मर मिटा एक दिन
इतनी अधिक स्त्री होने से आक्रांत था
ऐसे पैर लटकाए बैठे रहे हम काल पहाड़ी पर
ऐसे साथ साथ सूर्योदय और सूर्यास्त बिताये
उसने ही नहीं कहा कि सुन्दर हूँ मैं
उसके ही साथ लगा कि बहुत सुन्दर हूँ मैं