भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}<poem>मेरी नींद रेत की मछली हुई मसहरी में।में ।
धान पान थे खेत हमारे
 
नहरें लील गई
 
जैसे फूले कमल
 
ताल की लहरे लील गईं
 आग लगी है घर की मीठी गंगा लहरी में।।में ।।
कालिख झरती धूप
 
यहाँ की हवा विषैली है
 
सबसे ज़्यादा धोबी की ही
 
चादर मैली है
 दिखलाई देते हैं तारे भरी दुपहरी में।।में ।।
मुखिया खाते दूध भात
 
हम धोखा खाते हैं
 वहीं पंच -परमेश्वर हैं जो  
घर अलगाते हैं
 जितनी सड़कें नयीं नई बनीं सब गईं कचहरी में।में ।</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits