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यही सोच कर / कैलाश गौतम

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|रचनाकार=कैलाश गौतम
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यही सोचकर आज नहीं निकला -
गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।में ।
लहराते थे झील-ताल, पर्वत
हरियाते थे
हम हँसते थे झरना -झरना हम
बतियाते थे
इन्द्रधनुष उतरा करता था
एक इशारे में।में ।
छूती थी पुरवाई खिड़की, बिजली
छूती थी
टीस गई बरसात भरी
पिछले पखवारे में।में ।
जंगल में मौसम सोने का हिरना
लगता था
मन चकोर का बसता है
अब भी अंगारे में।।में ।।
</poem>
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