भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|रचनाकार=कैलाश गौतम
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
यही सोचकर आज नहीं निकला -
गलियारे में
मिलते ही पूछेंगे बादल
तेरे बारे में।में ।
लहराते थे झील-ताल, पर्वत
हरियाते थे
हम हँसते थे झरना -झरना हम
बतियाते थे
इन्द्रधनुष उतरा करता था
एक इशारे में।में ।
छूती थी पुरवाई खिड़की, बिजली
छूती थी
टीस गई बरसात भरी
पिछले पखवारे में।में ।
जंगल में मौसम सोने का हिरना
लगता था
मन चकोर का बसता है
अब भी अंगारे में।।में ।।
</poem>