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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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ले के ख़ुशबू सू -ए-सहरा रोज़ो-शब जाते हैं हम
और महक से ज़र्रा ज़र्रा खूब महकाते हैं हम

हम क़सम खाकर ये कहते हैं कि उनसे प्यार है
वह समझते हैं कि बस झूठी क़सम खाते हैं हम

अक्ल पर पत्थर हमारी पड़ गए हैं इसलिए
ख़ुद समझते ही नहीं औरों को समझाते हैं हम

जब भी ज़िद करते हैं रोते हैं खिलौनों के लिए
कल के वादे पे सदा बच्चों को बहलाते हैं हम

दूसरों पर तंज़ करना आम सी इक बात है
अपने कर्तव्यों को फिर क्यों भूल से जाते हैं हम

रंजो-ग़म अपने किसी पर भी अयाँ करते नहीं
साज़े-दिल पर अपने नग़मा झूम कर गाते हैं हम

लुत्फ़ आता है सितम तक़दीर के सहकर बहुत
मेहरबाँ तक़दीर होती है तो घबराते हैं हम

वो हमारे हैं न हम उनके हैं ऐ लोगो 'रक़ीब'
वो हमें भाते हैं और उनको बहुत भाते हैं हम
</poem>
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