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रचनाकार=राम प्रकाश 'बेखुद'
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कभी हम आग से गुजरे कभी पानी से गुजरे हैं
रहे हस्ती में हर इक मौजे इमकानी से गुजरे हैं

हँसी जब भी कभी होंटों को मेरे छू के निकली है
न जाने कितने बल लोगों की पेशानी से गुजरे हैं

मोहब्बत के समंदर में सफीने तो बहुत से थे
वही पहुंचे हैं साहिल तक जो तुगयानी से गुजरे हैं

रहे हस्ती पे चलने में पसीने आ गए मुझको
मगर दुनिया समझती है कि आसानी से गुजरे हैं

बजाहिर एक खामोशी रही दोनों तरफ लेकिन
हुआ महसूस जैसे दौरे तूफानी से गुजरे हैं

कभी डूबे हैं दरिया में कभी डूबे समंदर में
कभी बहते कभी ठहरे हुए पानी से गुजरे हैं

लिबासे जिस्म क्या है जिस्म तक अपना उतार आए
हम उस पर्दानशीं तक कितनी उरयानी से गुजरे हैं

वो मंजिल इश्क की जो मुख्तसर अर्से की खातिर थी
उसे पाने की खातिर राहे तुलानी से गुजरे हैं

न की थी कोई गुस्ताखी न कोई जुर्म था फिर भी
बहुत बचकर निगाहें जिल्ले सुबहानी से गुजरे हैं

मेरे ईमां में ये पुख्तगी यूं ही नहीं आई
यकीं तक हम गुमान की राहें तूलानी से गुजरें हैं</poem>