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'''पद 101 से 110 तक'''
तुलसी (101) जँाउ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।  काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे।  कौन देव बराइ बिरद- हित, हठि हठि अधम उधारे।  खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे।।  देव, दनुज, मुनि,नाग मनुज सब, माया -बिबस बिचारे।  तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु , कहा अपनपौ हारे।।
</poem>
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