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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
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<Poem>
सचमुच
निशान भी नहीं बचते प्रेम के
न कोई स्मृति, न बिंब
मामूली कोई अवशेष भी नहीं

नष्ट हो जाता है बहुत कुछ
फिर भी कुछ बचा रह जाता है
प्रेम से परे, उससे अलग

कोई भोर कभी जब बहुत सुंदर लगी थी
बरसों बाद उसके उस तरह
सुंदर लगने का कारण ख़त्म हो जाता है
पर फिर भी कभी-कभी
भोर वैसी ही सुंदर लगती है,
बल्कि सच तो यह है कि
कई दूसरी तरह की
सुंदरताओं की शिनाख़्त करना
मन को आ जाता है

धूसर शाम के आसमान में
उड़ते परिंदों की मामूली-सी छाया
पृथ्वी के साथ-साथ चलती है
उजली धूप वाला एक दिन
अतीत के कई गहरे कोमल अनुभवों का
विकल्प बन जाता है

कितना अजीब है
चीज़ें इस तरह नष्ट होती हैं
कि सचमुच
उनके चिन्ह तक नहीं बच पाते!
</poem>
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