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मांझी / ज़िया फतेहाबादी

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किश्ती का दिल छलनी-छलनी
कब ये काली रात है ढलनी
कब निकलेगा सुबह का तारा मांझी, कितनी दूर किनारा
पानी की दीवार खडी है
गर्दूं पे चिंघाड़ते बादल
गिर्दाबों की महलक हलचल
क़तरा-क़तरा है अंगारा मांझी, कितनी दूर किनारा
खालिक़ ए तूफाँ है ये समुन्दर
किश्ती मौज से टकराती है
हस्ती मौत से डर जाती है
कब तक देगी आस सहारा मांझी, कितनी दूर किनारा
उठती, गिरती, बढ़ती मौजें
अमन ओ सुकूँ की हाय गिरानी
पानी पानी हर सू पानी
इसको डुबोया, उसको उभारा मांझी, कितनी दूर किनारा
अश्कों से क्या काम चलेगा
दरियाओं से साज़िश कर के
सागर के साग़र को भर के
दूर से किसने मुझे पुकारा मांझी, कितनी दूर किनारा
हर ग़म का बचना मुश्किल है
गरकाबी किसको रास आई
किसने मर कर दुनिया पाई
दीवाना है आलम सारा मांझी, कितनी दूर किनारा
चाँद ने आ कर आफ़त ढाई
समय क़यामत का आ पहुँचा
क़तरे-क़तरे का दिल ढलका
कुछ तो मुँह से बोल ख़ुदारा मांझी, कितनी दूर किनारा
</poem>
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