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वृन्द के दोहे / भाग १

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=वृन्द}}[[नीति के Category:दोहे / वृन्द]] <br>
'''नीति के दोहे'''<br><br>
{{KKGlobal}}रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।<br>देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1<br><br>
अपनी पहुँ विचार विचारिकै, करतब करिये दौर ।<br>
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2<br><br>
[[वृन्द]] कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।<br>जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥ 3<br><br>
विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।<br>
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥ 4<br><br>
[[दोहे]] बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।<br>जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 5<br><br>
मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।<br>
तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 7<br><br>
[[वृन्द]] सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।<br>पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 8<br><br>
अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।<br>
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 9<br><br>
~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~  {{KKGlobal}}<br> रागी अवगुन न गिनै ,यहै जगत की चाल ।<br> देखो ,सबही श्याम को ,कहत ग्वालन ग्वाल ॥1<br>  अपनी पहुँ विचार विचारिकै ,करतब करिये दौर ।<br> तेते पाँव पसारिये , जेती लाँबी सौर ॥2<br> कैसे निबहै निबल जन , करि सबलन सों गैर ।<br>जैसे बस सागर विषै , करत मगर सों बैर॥3<br> विद्या धन उद्यम बिना ,कहो जू पावै कौन ।<br>बिना डुलाये ना मिलै ,ज्यौं पंखा की पौन ॥4<br> बनती देख बनाइये ,परन न दीजै खोट ।<br>जैसी चलै बयार तब ,तैसी दीजै ओट ॥5<br> मधुर वचन ते जात मिट ,उत्तम जन अभिमान ।<br>तनिक सीत जल सों मिटै ,जैसे दूध उफान ॥ 7<br> सबै सहायक सबल के ,कोउ न निबल सहाय ।<br>पवन जगावत आग को ,दीपहिं देत बुझाय ॥ 8<br> अति हठ मत कर हठ बढ़े ,बात न करिहै कोय ।<br>ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी ,त्यौं-त्यौं भारी होय ॥9<br> लालच हू ऐसी भली ,जासों पूरे आस ।<br>चाटेहूँ कहुँ ओस के , मिटत काहु की प्यास ॥ 10<br><br>