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दो पोज़ / दुष्यंत कुमार

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{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=सूर्य का स्वागत / दुष्यन्त दुष्यंत कुमार
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<poem>
सद्यस्नात<ref>इसी समय नहाई हुई, तुरन्त नहाकर आना</ref> तुम
जब आती हो
मुख कुन्तलों<ref>केश, बाल</ref> से ढँका रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राहू से चाँद ग्रसा रहता है ।
सद्यस्नात तुम<br>जब आती हो<br>मुख कुन्तलों से ढँका रहता है<br>बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब<br>राहू से चाँद ग्रसा रहता है ।<br><br> पर जब तुम<br>केश झटक देती हो अनायास<br>तारों -सी बूँदें<br>बिखर जाती हैं आसपास<br>मुक्त हो जाता है चाँद<br>तब बहुत भला लगता है ।<br><br><br/poemसद्यस्नात=इसी समय नहाई हुई ; कुन्तल=केश<br><br>{{KKMeaning}}
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