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हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे,
किसको सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे ।
कौन निभाता है उम्र भर ताल्लुक़ इतना,
ऐ मेरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे ।
हंस ना इतना फ़क़ीरों के अकेलेपन पर,
जा खु़दा मेरी तरह तुझको भी तन्हा रक्खे ।
कम नहीं तमा-ए-इबादत भी हिर-ए-ज़र से,
फ़क्र तो वो है के जो दीन ना दुनिया रक्खे ।
दिल भी पागल है के उस शख़्स से वाबस्ता है,
जो किसी और का होने दे ना अपना रक्खे ।
मुझको अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तेरा,
कोई तुझसा हो तो फिर नाम भी तुझसा रक्खे ।
ये अता’अत है क़ता’अत है के चाहत है ’फ़राज़’,
हम तो राज़ी हैं वो जिस हाल में जैसा रक्खे ।
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