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{{KKRachna
| रचनाकार=रमा द्विवेदी
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मानव की भावनाएँ आज बर्फ़ बन गईं,
ज़िन्दगी की हर खुशी बस दर्द बन गईं।

मीठा जहर पिला रहा मानव को मानव आज,
प्रतिशोध की आग में सब जर्द बन गईं ।

इन्सानियत को ढूँढ़ते सदियाँ गुजर गईं,
इंसा को इंसा डस रहा बस सर्प बन गईं ।

हर खुशी का लम्हा है दहशत भरा हुआ,
ज़िन्दगी की धड़कनें बस सर्द बन गईं।

विश्वास भी तो जल गया नफ़रत की आग में ,
इंसान की हर ख़्वाहिशें बेदर्द बन गईं।
<poem>
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