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'''रामभक्ति की याचना'''
( छंद 121 से 123 तक)  (121) भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद, निंदै सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।  जानत न जोगु हियँ हानि मानैं जानकीसु, काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं।।  पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों ,महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।  निज अघजाल , कलिकालकी करालता, बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं।। (122) धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि-भारू हरिबेको अवतारू लियो नरको।  नीति औ प्रतीति -प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु, लोक -बेद राखिबेको पनु रघुबरको।।  बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं , सो प्रसंगु सुने ं अंगु जरै अनुचरको।  राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको।। (123) नाम महाराज के निबाह नीको कीजे उर ,सबही सोहात , मैं न लोगनि सोहात हौं ।  कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर, ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं।  तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता, कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।  लोक एक भाँति को, त्रिलोकनाथ लोकबस, आपनो न सोचु , स्वामी -सोचहीं सुखात हौं।। 
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