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'''शंकर -स्तवन-1'''
( छंद 149, 150)
(149) भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर। सीस गंग, गिरिजा अर्धंग भुजंगबर।। मुंडमाल , बिधु बाल भाल, डमरू कपालु कर। बिबुधबृंद-नवककुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर। त्रिपुरारि त्रिलेाचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन। कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव संकर सरन।। (150) गरल -असन दिगबसन ब्यसन भंजन जनरंजन। कुंद-इंदु-कर्पूर-गौर सच्चिदानंदघन।। बिकटबेष, उर सेष , सीस सुरसरित सहज सुचि। सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रूचि।ं कंदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुन भवन हर। त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर।। 1
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