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'''( जानकी -मंगल पृष्ठ 13)'''
'''धनुर्भंग-1'''
 
( छंद 89 से 96 तक)
 
देखि सपुर परिवार जनक हिय हारेउ।
नृप समाज जनु तुहिन बनज बन मारेउ।89।
 
कौसिक जनकहिं कहेउ देहु अनुसासन।
देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन।।
 
मुनिबर तुम्हरें बचन मेरू महि डोलहिं।
तदपि उचित आचरत पाँच भल बोलहिं।।
 
बानु बानु जिमि गयउ गवहिं दसकंधरू।
को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरू।।
 
पारबती मन सरिस अचल धनु चालक।
हहिं पुरारि तेउ एक नारि ब्रत पालक।।
 
सो धनु कहिय बिलोकन भूप किसोरहि।
भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहिं।।
 
रोम रोम छबि निंदति सोभ मनोजनि।
देखिय मूरति मलिन करिय मुनि सो जनि।
 
मुनि हँसि कहेउ जनक यह मूरति सोहइ।
सुमिरत सकृत मोह मल सकल बिछोहइ।96।
 
'''(छंद-12)'''
 
सब मल बिछोहनि जानि मूरति जनक कौतुक देखहू।
धनु सिंधु नृप बल जल बढ़यो रघुबरहि कुंभज लेखहू।।
 
सुनि सकुचि सोचहिं जनक गुर पद बंदि रघुनंदन चले।
नहिं हरष हृदय बिषाद कछु भए सगुन सुभ मंगल भले।12।
'''(इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 13)'''
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