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Kavita Kosh से
गंध बनकर हवा में बिखर जायँ हम, ओस बनकर पँखुरियों से झर जायँ हम
तू न देखे हमें बाग़ में भी तो क्या! तेरा आँगन तो खुशबू ख़ुशबू से भर जायँ हम
हमने छेड़ा जहाँ से तेरे साज़ को, कोई वैसे न अब इसको छू पायेगा
तेरे हर बोल पर हम तो मरते रहे, तुझको भायी न कोई तड़प प्यार की
हमसे मोड़े ही मुँह तू रही, जिन्दगीज़िन्दगी! छोड़ भी जान अब अपने घर जायँ हम
रात काँटों पे करवट बदलते कटी, हमको दुनिया ने पलभर न खिलने दिया
आयेंगे कल नए रंग में फिर गुलाब, आज चरणों पे उनके बिखर जायँ हम
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