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अब राम ही जाने कब इसकी, पत्ती-पत्ती नीलाम हुई!
था फ़ासिला चार ही अंगुल का, हाथों से किसी के किसीके आँचल का
वे सामने पर आये न कभी, सजने में ही रात तमाम हुई
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