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मिल गया मुझ को / मासूम शायर

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार= मासूम शायर}}[[Category:गज़ल]]<poem>मुहब्बत में मुहब्बत के सिवा सब मिल गया मुझ को<br />नही मिलना था उस को पर मेरा रब मिल गया मुझ को<br />
कोई ये आ के कहता है कि उस को खो दिया मैने <br />गुमा तो बाद में होगा मगर कब मिल गया मुझ को<br />
इसे वो आग कहते थे मगर कब जान मैं पाया<br />बड़ों की बात का मानी सुनो अब मिल गया मुझ को<br />
मज़ा खोने में भी कुछ है जिसे मैं आज समझा हूं<br />हूँये बहते अश्क़ कहते हैं - अरे , सब मिल गया मुझ को<br />
हमेशा यूं यूँ ही तड्पूं तड़पूँ मैं मुझे मरने नही देता<br />जब अपनी जान देनी थी वही तब मिल गया मुझ को<br />
उसे बस देख कर इन में मेरी आँखों को चूमा था<br />अचानक चाँद तेरा ये कोई शब मिल गया मुझ को<br />
किसी तपती दुपहरी में दिया जब आब प्यासे को<br />कहा 'मासूम' ने मुझसे कि मज़हब मिल गया मुझ को<br /poem>
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