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Kavita Kosh से
कभी निकल आयी मैं बाहर
उसमें अब फिर से प्रवेश कर
लज्जा से न मरूँ!
'दुखमय है कुल गाथा मेरी
बीत गये युग देते फेरी
प्रिय इतनी अब रात अँधेरी
रवि को देख डरूँ
'मन को पति-चरणों से जोड़े
अब मैं हूँ जग से मुँह मोड़े
कोई व्यंग्य-बाण फिर छोड़े
क्यों यह सहन करूँ'
अवध में कैसे पाँव धरूँ!
वनवासिनी पुन: रानी का कैसे स्वाँग भरूँ!