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Kavita Kosh से
सजा कर रखी हैं कितनी किताबें !
पीले प्रकाश में
कौन है वह?
मुझे जीवनानंद दास की ऎक एक कविता
याद आती है और
इस मध्य रात्रि में
छटपटाती हुई आत्मा लिए !
कौन मेरी व्याकुलता भरी पुकार पर
दौड़ा आएगा?
अजीब-सी कश्म-कश
अजीब-सी रात
अजीबो-गरीब है यह मनोदशा
और यह दुनिया
एक स्वप्न-सा लगता है
यह चलना-फिरना
अपने-आप पर रोना
और हँसना
सभी कर्म-कुकर्म करना
फिर रात भर इस तरह
ख़ुद का धीरे-धीरे खुलना
अपने को इतनी भिन्न
आकृतियों में पाना
आश्चर्य !
मैं लौट आता हूँ कमरे में
पड़ जाता हूँ फिर बिस्तर पर
अंधेरे में अब साफ़-साफ़
पहचान पा रहा हूँ
अपनी ही आकृति
जो जितनी ही जानी-पहचानी है
उतनी ही अजनबी
उस अजनबी से
आत्मीय होने के लिए
कविताएँ लिखता हूँ
लिखता ही रहता हूँ