भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिव पुराण / मुकेश पोपली

10,699 bytes added, 01:13, 13 अगस्त 2011
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश पोपली |संग्रह= }} [[Category:कविता]] {{KKCatKavita‎}}<poem>वट-वृ…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मुकेश पोपली
|संग्रह=
}}
[[Category:कविता]]
{{KKCatKavita‎}}<poem>वट-वृक्ष के नीचे
एक दिन थे शंकर ध्यान में,
सती की आवाज़ आई
मीठी उनके कान में -
'दुनिया के मालिक तुम
अविनाशी तुम भंडारी हो
देवन के महादेव हो
त्रिशूल डमरूधारी हो।
विनय सुनकर मेरी
भगवन, दया तो दिखलाइए
पाँच सौ के नोटों का चक्कर
मुझको भी बतलाइए!'
इतना सुन मुसकराकर बोले
तब गिरिजापति -
'लक्ष्मी के प्रभाव से
तुम भी रहीं नहीं क्या अछूती?
तो सुनो,
जिसके पास भी पाँच सौ का
जाली नोट पाया जाएगा
बैंक में जाकर भोगेगा परेशानी
और अंतत: जेल जाएगा।'
मुँह बिचकाकर बोली पार्वती -
'इन तिलों में तेल नहीं
जेल जाने पर क्या बेल नहीं?
ऐश-ओ-आराम वहाँ ज़्यादा है
दुख का कोई खेल नहीं,
आप तो हो भोले नाथ,
सबकी बातों में आ जाते हो,
लोग मतलब साधते हैं
मोहरा तुम बन जाते हो।'
शिवजी ने इधर-उधर झाँका डाला
मुँह में बूटी-प्रसाद को खंगाला,
बोले - 'भवानी, खरी-खोटी मत सुनाओ
सीधे मतलब पर आ जाओ,
किसे मुक्ति दिलवानी है
उसका नाम-पता मुझे बतलाओ।
शहर है या गाँव, एसटीडी मिलाओ
कंप्यूटरयुग है, ई-मेल, वेबसाइट बतलाओ।'
बोली पार्वती फटाफट -
'इस बार स्थिति है विकट
एक स्थान यहीं पर है निकट।'
विकट-निकट शब्द सुन प्रभु चकराए
आसन छोड़ खड़े हो गए
दूर तक नज़र गड़ाए -
'मुझे तो दृष्टिगोचर नहीं होता कोई
क्या पीहर का तुम्हारा भाई है कोई?
क्यों इस उम्र में अठखेली करती हो
भोला मुझको जान हँसी-ठिठोली करती हो!
क्या अभी होली का मौसम है
या तुमने भी गांजा पी लिया है?
बैठा था अच्छा-भला ध्यान में
न जाने तुमने क्या बखेड़ा खड़ा किया है?'
पार्वती को इस बात पर बहुत गुस्सा आया
नथुने फड़कने लगे, आँखों को फैलाया
क्रोधयुक्त हो शिवजी का आसन उठाया
पाँच सौ के नोटों का विशाल भंडार दिखाया।
बाबा की अचानक खुल गई जटाएँ
दिल और दिमाग में चलने लगी सूनामी हवाएँ-
'यह क्या पार्वती, तुमने अनर्थ कर डाला
मेरे आसन को रिजर्व बैंक की सेफ बना डाला?
कहाँ से पाए तुमने ये नोट फर्जी, बतलाओ
कितना किससे कमीशन खाया,
पूरा डिटेल-चार्ट मुझको दिखलाओ!
मैं इस पर देवताओं की ज्यूरी बिठाऊँगा
ज़रूरत पड़ी तो विष्णु को भी बताऊँगा!'
'स्वामी, इस हमाम में सब नंगे हैं
सब के सब देवता इसी रंग में रंगे हैं
भक्तों के इस प्रेम को
मैं कैसे कर देती बोलो अस्वीकार
तुम तो रहते हमेशा नशे में
मुझसे ही करते थे वो पुकार!
अब तुम जाओ पृथ्वी पर
मार्केट में इनको चलाओ
वर्ना मुझको भेज दो तिहाड़
और स्वयं कंद-मूल खाओ।'
उलझन में पड़े भोलेनाथ
लिखी एलटीसी की दरख़्वास्त
तीन-चार बड़े बक्सों में भरे नोट
आए मेरे घर ले नारी-प्रेम की ओट।
मैंने उसी समय दीपक में घी डाला था
आरती के साथ विनती करने वाला था
अचानक दरवाज़ा जोर से खटखटाया
सिक्यूरिटी के साथ उनको दरवाज़े पर पाया।
पहचान प्रभु को, चरणों में उनके सिर नवाया
आज तो निश्चित ही मेरी मुक्ति का दिन आया!
'वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुआ,
आज मेरे हृदय में तुम्हारा नाम उजागर हुआ,
लो, वरदान में तुम्हें यह कुबेर-खजाना देता हूँ,
संताप तुम्हारा सारा मैं डाइजेस्ट कर लेता हूँ!'
मैंने कभी नोटों को और कभी भगवन को देखा
दंडवत करते हुए उनके चरणों में
बार-बार माथा टेका -
'खोटे नोटों को देने के लिए
तुम्हें मेरी ही सुध क्यों आई,
पत्नी प्रेम में मेरी जान क्यों फँसाई?'
तांडव नृत्य करते हुए वे बोले -
'सारा जग मुझे बुलाता है बम-बम भोले
तुम तो बैंक में काम करते हो
दो-चार करोड़ पर हमेशा हाथ धरते हो
किसी भी ग्राहक के पैकेट में इन्हें मिला देना
शाखा प्रबंधक को दो-चार घूँट पिला देना!'
'प्रभु, क्यों इस दुखी को सताते हो,
क्यों सीधे-सादे को ग़लत बात सिखाते हो,
वी.आर.एस. की जगह एक्जिट करवाते हो?
छोड़ो भगवन लालच, और एक काम करो
खोलो अपनी तीसरी आँख
और इन नोटों का कल्याण करो
उड़ा दो धमाके से दुनिया के नकली नोटों को
अच्छी बुद्धि दे डालो सरहद-पार के बेटों को!'
कारण इस खेल का जानकर प्रभु मुसकराए
सारे परिवार को आशीर्वाद देने बैठक में आए
श्रीमती जी ने पाँव धोकर उन्हें आसन पर बिठाया
पार्वती और गणेश से बच्चों का परिचय भी कराया
पेस्ट्री खाते शंकर बोले - पृथ्वी का हालचाल सुनाओ,
बहुत दिनों बाद आया हूँ, तुम ही नारद बन जाओ!'
'नारायण-नारायण, कुछ नमकीन तो लीजिए
करने को है बहुत वार्ता, पहले चाय तो पीजिए।'
'यार, यह चाय तो फीकी लगती है
तुम्हें डायबिटीज हो गई दिखती है!'
'अब तो प्रभु, हमें मिलती है यही चाय
आयकर भरने वालों का नाम चीनी-वास्ते
राशनकार्ड से सरकार ने दिया हटाय,
तुम तो हो ऊपर मस्त
यहाँ अभी भी ज़िंदगी भारी है,
क्या फ़र्क पड़ता है गर
सरकार में वैरायटी सारी है?
सारे के सारे सिर्फ़
वोटों के लिए बरसते हैं,
घी-मक्खन उनके घरों में है
हम तो पानी को तरसते हैं।
सिर्फ़ एक मेहरबानी भोले बाबा
इस जनता पर कर दीजिए
हमारे देश के पाँच सौ तैंतालीस
''नोटों'' को मायाजाल से मुक्त कीजिए
नहीं तो लगता है, एक दिन ऐसा आएगा
जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के नाम पर
मेरा भारत छिन्न-भिन्न हो जाएगा
इन्सान इनसानियत छोड़ बैठेगा
आदमी-आदमी का दुश्मन बन जाएगा।'
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
5,484
edits