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वीर / रामधारी सिंह "दिनकर"

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार:''' =रामधारी सिंह "'दिनकर"''' ----------------------------|संग्रह=सच् }}{{KKCatKavita}}<poem>सच है , विपत्ति जब आती है , <br>कायर को ही दहलाती है , <br>सूरमा नहीं विचलित होते ,<br>क्षण एक नहीं धीरज खोते ,<br>विघ्नों को गले लगाते हैं ,<br>कांटों काँटों में राह बनाते हैं । <br>हैं।
मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,<br>संकट का चरण न गहते हैं ,<br>जो आ पड़ता सब सहते हैं ,<br>उद्योग - निरत नित रहते हैं ,<br>शुलों का मूळ नसाते हैं ,<br>बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।<br>हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में ,<br>टिक सके आदमी के मग में ?<br>ख़म ठोंक ठेलता है जब नर<br>पर्वत के जाते पाव उखड़ ,<br>मानव जब जोर लगाता है ,<br>पत्थर पानी बन जाता है ।<br>है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर ,<br>हैं छिपे मानवों के भितर ,<br>मेंहदी में जैसी लाली हो ,<br>वर्तिका - बीच उजियाली हो ,<br>बत्ती जो नहीं जलाता है ,<br>रोशनी नहीं वह पाता है ।है।<br/poem>
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