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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
तुमने ही मुँह मोड़ लिया, मन की आशाएँ जायें कहाँ
पतवारें ही दुत्कारें तो फिर नौकाएँ जायें कहाँ

छपने की सुविधा से वंचित मंचों का भी साथ नहीं
आवारा ना भटकें तो मेरी कविताएँ जायें कहाँ

कौन मिलेगा हमसे अच्छा शुभचिंतक इनको जग में
हम कवियों के पास न भटकें तो विपदाएँ जायें कहाँ

हम ख़ुद भूले अपना रस्ता, हम ख़ुद असमंजस में हैं
आप हमीं से पूछ रहे हैं “ये बतलाएँ जायें कहाँ”

सच कहना क्या सीखा हमने, सब संबंधी ग़ैर हुए
कैसे ये तनहाई काटें अब हम आएँ जायें कहाँ
<poem>
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