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नया पृष्ठ: <poem> '''एक अकेला सफ़र[भूमिका]''' गुरूदेव टैगोर ने …
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'''एक अकेला सफ़र[भूमिका]'''

गुरूदेव टैगोर ने बहुत कहते, बहुत लिखते, बहुत समझाते हुए, बहुत सा पाकर भी लगता है कि कभी कभी कुछ खोते रहने जैसी पीड़ा को लेकर ही शायद लिखा था या उनकी लेखनी से अनायास लिख सा गया था- ‘एकला चलो रे’

यदि आपकी बात कोई नहीं सुनता, आपका सत्य सुनने का इस दुनिया को समय नहीं और समझने की समझ नहीं, साथ चलने का साहस नहीं है तो न सही, पर एक कवि का, विचारक का, तत्व चिन्तक का तो यह दायित्व है कि जो अनुभव उसने किया है, देखा है, परखा है उसको कहता चले । अकेला भले हो वह ऐसा करते समय, पर कोई कारण नहीं कि उस अकेले की यह सोच कल सबकी सोच न बने । देर भले हो जाए पर होना तो यही है, यही नियति है ।

श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ प्रतिभा के, प्रयत्न के, चिन्तन के, कलम के, शब्दों के और भावनाओं की कल्पनाओं की मूर्ति तराश कर उसमें प्राण भर देने वाले कुशल कवि हैं।

मूलतः गीतकार श्री अकेला अपनी गीत विधा को इस नए दौर की सर्जना में इतनी गरिमा प्रदान करते आ रहे हैं कि कहना पड़ता है कि नई कविता, नया कथ्य, शिल्प, कला-कौशल कुछ भी क्यों न हो, पर जो प्राण, जो संवेदना, भावों की जो भव्यता गीत के गुंजन में है वह केवल वहीं है, वहीं रहेगी। काव्य का समूचा सौन्दर्य वास्तव में गीत का दर्शन है ।

आज इसी गीत की अनुभूतियों को लेकर हमारा कवि ‘अकेला’ हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में चल पड़ा है और हाँ चल ही नहीं पड़ा वरन् एक पड़ाव पार करके मंज़िल की दिशा पकड़े सा लगता है । गोपाल दास ‘नीरज’ जी कहते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर जहाँ कूड़ा-करकट इकट्ठा हो रहा है वहां ‘अकेला’ अपवाद हैं । इनकी ग़ज़लों में इस विधा की भरपूर चतुराई, कसावट और कथन-कौशल मौजूद है । छोटी हो या बड़ी बहर अपनी भावनाओं को साकार करने में ‘अकेला’ ने सफलता प्राप्त की है ।

श्री ‘अकेला’ के शेर श्रोताओं के ओठों पर उनके मन के बोल बन कर निकल पड़ते हैं । ‘अकेला’ कुछ भी पाने वाले न होकर सदा सब कुछ खोने वाले, सही अर्थों में साहित्यकार हैं । उनको किसी ने कुछ भी नहीं दिया, पर वे उस न पाने की वेदना से कितने धनी बने, इसका आकलन करने पर लगता है कि शोषण की सृष्टि के कुशल चितेरे, आदर्शों की स्थापना के लिए सीधे-उल्टे, सहज भावनात्मक और कलात्मक रीति से चोट करने वाले सिद्ध सर्जक वे बन गए हैं । मूक दर्शक सा उनका कवि जब मुखर होता है तो क़लम चूम लेने को मन करता है ।

'''मान्यवरो ! मैं भी कुछ बोलूँ अगर इजाज़त हो ।'''
'''आज ज़ुबां के बंधन खोलूँ अगर इजाज़त हो । ।'''

'''लौट रहे बहती गंगा से नहा-नहा कर सब,'''
'''हाथ ज़रा क्या मैं भी धो लूँ अगर इजाज़त हो ।'''

बहती गंगा में लोग हाथ धोने क्या, नहाने से भी नहीं अघाते । ऐसी आपाधापी की दुनिया में कवि ज़िंदा रहने के लिए ज़रा हाथ धोने की बात कहता है तो इसकी भी अनुमति नहीं है ।

‘अकेला’ के कवि में उतावलापन नहीं वरन कुछ कर जाने की दृढ़ता है । कारण, उसके संस्कार इसी संकल्प शक्ति में पले पुसे हैं ।

'''माँ ने सिखलाया है कि दुश्मन की भी,'''
'''कम से कम सौ बात सुनो फिर कुछ कहना'''”

ये सौ बातें हों या सौ गालियाँ हमें उस पुराण युग से लेकर आज तक नीति पर खरे उतरने की कला सिखाती आई हैं । कवि का आदर्शवाद कितना ही व्यावहारिक क्यों न बने पर उसके मुख से जो निकलेगा तो इसके सिवा वह क्या होगा ।

'''पहले तेरी जेब टटोली जाएगी'''
'''फिर यारी की भाषा बोली जाएगी'''
* * *
'''नैतिकता की मैली होती ये चादर'''
'''दौलत के साबुन से धो ली जाएगी”'''

दौलत के साबुन से धुलने वाली नैतिकता नैतिकता नहीं, मैली दुनिया का भ्रामक साफ-सुथरापन है । कवि का इस वृत्ति से समझौता हो यह कैसे संभव है ? उसे कितना ही क्यों न झेलना पडे़, वह जिन सिद्धांतों के सहारे खड़ा है, वहीं उसका अस्तित्व है ।

‘अकेला’ आज के मनमौजी, अनुत्तरदायित्वपूर्ण, भ्रष्टाचार से भीगे माहौल पर अपनी सीधी-सादी कलात्मक अभिव्यक्ति में क्या कुछ नहीं कह देते । रास्ते में थाने का पड़ना और लुट जाने में क्या संकेत है ? कैसी पैनी अभिव्यंजना है, कहते नही बनता ।

'''गर्म है पाकिट तुम्हारी बचके जाना'''
'''लुट न जाना राह में थाना पड़ेगा'''

अभावों का अहसास, दर्द की कसक और उसकी अभिव्यक्ति अप्रत्यक्ष रीति से प्रत्यक्ष करने की क्षमता कुशल कवि में होती है । ‘अकेला’ का ग़ज़लकार इस कला में माहिर है -

''' न थी घर में चीनी तो कल ही बताती'''
''' करेगा न बनिया उधारी सुबह से ।'''

दुकानदारों की व्यावहारिकता की चादर में अपनी लाचारी के नंगेपन को ढकने की यह पीड़ा बहुत अनूठी है । अभाव असंतोष, असहायता, असहयोग कुछ भी क्यों न हो, सारी स्थितियां विषम क्यों न हों, वे कवि के संकल्प को डिगा नहीं सकतीं । अगर डिगा सकतीं तो सर्जना का चिन्तक, पर पीड़ा की अनुभूतियों का पुण्य संसार कब का मिट गया होता । कवि ‘अकेला’ इसी भाव-भूमि पर खड़ा है, कहता है –

'''रौशनी घर घर में भरने की तड़प'''
'''देखिए तो इक किरन की आरज़ू'''

अविश्वासों की पराकाष्ठा और पीड़ा की संसृति की अति तो देखिए, पढ़ते और समझते ही बनती है –

'''कैसे समझाएं परिंदों को शिकारी हम नहीं'''
'''दान के दाने भी वो खाने से कतराने लगे'''
* * *
'''कुछ तो वो सामान भी चोरी गया'''
'''चुक नहीं पाए थे जिसके दाम तक'''

कंगाली में आटा गीला के इस मुहावरे का सत्य किस कलात्मक रीति से ‘चुक नहीं पाए थे जिसके दाम तक’ में उभरा है । जिसके पास जितनी गंुजाइश हो, आंक ले इनका मूल्य ।

कितना कहा जाए ? कितना लिखा जाए ? कवि ‘अकेला’ के काव्य संसार का महिमा मंडित सजा-धजा बहुरंगी मेला सृष्टि का समग्र दर्शन है । काव्यानन्द की हमारी प्राप्ति है ।

दिखावे की ललक और उसके कारण दुनिया की बुरी नियत को उजागर कर देने की बात कितनी सटीक इन दो पंक्तियांें में हैं लीजिए पढ़िए

'''प्रेयसि ! दुनिया बहुत बुरी है और फिर बाहर चलना है'''
'''क्या गर्दन पर ये सोने का हार बहुत आवश्यक है ?'''

बहुत बहुत लिखने को है पर आशीर्वाद तो लिखने से अधिक, कहने से अधिक मन में, आत्मा में रमे रहने से पलता है, पात्र को पूर्णता मिलती है । ‘अकेला’ के कवि का ये सफ़र पूर्णता प्राप्त करे, सुधी पाठक इन्हें पढ़े, सुनें और गुनें । इसे जन-जन तक पहुंचाएं, यही कामना है ।

'''-विन्ध्यकोकिल भैया लाल व्यास'''
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