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|रचनाकार=अनिल जनविजयप्रमोद कौंसवाल
|संग्रह=रूपिन-सूपिन / प्रमोद कौंसवाल
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<poem>
इन हाथों को खंगाल लो
ले जाने के लिए यहाँ से कुछ नहीं
पिछली दफ़ा बारिश अच्छी नहीं हुई थी
उगे थे जो कुकुरमुत्ते
मुरझा गए खड़े होने से पहले
हम लोग जैसा तुम देख रहे हो
बड़े ही लिजलिजे-से रह रहे हैं
घरों से निकलते तो बाहर रोज़-ब-रोज़
फ़िसलन बिछी मिलती है
हम बचते हुए निकलते हैं
तुमको बचना सिखा सकते हैं हम
इस सबसे और उन अत्याचारियों से भी
लड़ने नहीं जिनसे सिर्फ़ बचने की नौबत है
इस पूरे काम में हम तुम्हारे साथ
सोचने में भी मदद करते तो अच्छा
कि अत्याचार को ही ख़त्म कर डालेंगे
तुम्हे आग से ख़त्म करने के लिए
पानी होना सिखा रहे हैं
फ़िलहाल इतना ही
ले जाओ इसे।
</poem>