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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''(एक भ्रष्ट अधिकारी की डायरी के आरम्भिक पन्ने)'''
ओ मेरी प्रियतमा
ईमानदारी
तुम बसी हो
हाँ बसी हो बचपन से
मेरे मन-मन्दिर में
मैंने किया था
हाँ किया था
कभी वादा
तुमसे
तुम्हें अपनाने का
तुम्हारे साथ जीवन बिताने का
मैं चाहता हूँ
अब भी तुम्हें
मगर अपना नहीं सकता
मैं मजबूर हूँ
वादा निभा नहीं सकता
क्योंकि मेरे माँ-बाप ने
दी है मुझे क़सम
तुमसे सदा दूर रहने की
उनका कहना है
अगर मैं तुम्हें अपनाऊँगा
तो कभी सुखी नहीं रह पाऊँगा
समाज में
प्रतिष्ठा नहीं पाऊँगा
गुमनाम हूँ
गुमनाम मर जाऊँगा
सच, कितनी चिन्ता है
मेरे माँ-बाप को मेरे सुख की
उन्होंने फिर छिपा ली
कहानी अपने दुख की
मगर मैं
अनजान नहीं हूँ उनके अब तक बीते
सुख-साधनहीन जीवन से
मुझे अपने तथाकथित सुख की
प्रतिष्ठा की
चाह नहीं है
साफ़ सुथरी समतल राह
मेरी राह नहीं है
मुझे
कंटकाकीर्ण राहें ही
पसंद हैं
काश
मेरा सुख, मेरी प्रतिष्ठा
मात्र होते हमारे मिलन के बीच दीवार
तो उस दीवार को मैं
तत्काल तोड़ देता
यह समाज क्या
तुम्हारे लिए
सारा संसार छोड़ देता
मगर अपने प्रेम की
बलिवेदी में
कैसे चढ़ा दूँ
अपने माँ-बाप के,
छोटे भाई-बहनों के
वो हित
जो सम्बन्धित हैं
उनके जिंदा रहने से
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
यदि मैं तुम्हें अपनाऊँगा
तो इन सब के साथ
न्याय नहीं कर पाऊँगा
एक समय था
जब मेरे माँ-बाप भी
मेरी तरह तुम्हें प्यार करते थे
तुम पर मरते थे
तुम्हें देखकर मेरे साथ
ख़ुशी से झूम उठते थे
मगर
जब तुम्हारे कारण
हाँ, सिर्फ़ तुम्हारे कारण
वे और उनके बच्चे
अच्छे भोजन, अच्छे वस्त्रों के लिए
ललचाते रहे
और जब
स्कूल खुलने के महीनों बाद भी
कोर्स की किताबें और स्कूल-फीस
पास न होने के कारण
उनके बच्चे क्लास से
जलील करके निकाल दिये जाते रहे
या फिर
जब मकान का किराया
समय पर जमा न होने पर
मकान-मालिक
दो मिनिट में मकान ख़ाली करा लेने
के लिए धमकाते रहे
और जब पुरानी उधारी
चुकता न हो पाने के कारण
हमारे थैले
परचून की दुकान से
ख़ाली वापस आते रहे
तब उन्हें तुम से नफ़रत हो गयी
अब मेरे माँ-बाप
नहीं देखना चाहते
तुम्हें मेरे साथ
एक पल के लिए भी
इसलिए जाओ, हाँ जाओ
मेरी प्रियतमा ईमानदारी जाओ
तुम किसी और की हो जाओ
मैं तुम्हें भूल जाऊँ
तुम मुझे भूल जाओ
मेरी दुआ है
तुम जहाँ भी रहो
सुखी रहो
निरन्तर उन्नति करो
तुम्हें लोग हाथों हाथ लें
प्रेम की सीमा तक
प्रेम करें
तुम्हें सम्मानित करने वालों की संख्या
दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती जाये
और तुम्हें ठुकरा कर
अपमानित करने वालों में
यह शख़्स ‘अकेला’ रह जाये
हाँ, सिर्फ़ ‘अकेला’ रह जाये ।
<poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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'''(एक भ्रष्ट अधिकारी की डायरी के आरम्भिक पन्ने)'''
ओ मेरी प्रियतमा
ईमानदारी
तुम बसी हो
हाँ बसी हो बचपन से
मेरे मन-मन्दिर में
मैंने किया था
हाँ किया था
कभी वादा
तुमसे
तुम्हें अपनाने का
तुम्हारे साथ जीवन बिताने का
मैं चाहता हूँ
अब भी तुम्हें
मगर अपना नहीं सकता
मैं मजबूर हूँ
वादा निभा नहीं सकता
क्योंकि मेरे माँ-बाप ने
दी है मुझे क़सम
तुमसे सदा दूर रहने की
उनका कहना है
अगर मैं तुम्हें अपनाऊँगा
तो कभी सुखी नहीं रह पाऊँगा
समाज में
प्रतिष्ठा नहीं पाऊँगा
गुमनाम हूँ
गुमनाम मर जाऊँगा
सच, कितनी चिन्ता है
मेरे माँ-बाप को मेरे सुख की
उन्होंने फिर छिपा ली
कहानी अपने दुख की
मगर मैं
अनजान नहीं हूँ उनके अब तक बीते
सुख-साधनहीन जीवन से
मुझे अपने तथाकथित सुख की
प्रतिष्ठा की
चाह नहीं है
साफ़ सुथरी समतल राह
मेरी राह नहीं है
मुझे
कंटकाकीर्ण राहें ही
पसंद हैं
काश
मेरा सुख, मेरी प्रतिष्ठा
मात्र होते हमारे मिलन के बीच दीवार
तो उस दीवार को मैं
तत्काल तोड़ देता
यह समाज क्या
तुम्हारे लिए
सारा संसार छोड़ देता
मगर अपने प्रेम की
बलिवेदी में
कैसे चढ़ा दूँ
अपने माँ-बाप के,
छोटे भाई-बहनों के
वो हित
जो सम्बन्धित हैं
उनके जिंदा रहने से
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
यदि मैं तुम्हें अपनाऊँगा
तो इन सब के साथ
न्याय नहीं कर पाऊँगा
एक समय था
जब मेरे माँ-बाप भी
मेरी तरह तुम्हें प्यार करते थे
तुम पर मरते थे
तुम्हें देखकर मेरे साथ
ख़ुशी से झूम उठते थे
मगर
जब तुम्हारे कारण
हाँ, सिर्फ़ तुम्हारे कारण
वे और उनके बच्चे
अच्छे भोजन, अच्छे वस्त्रों के लिए
ललचाते रहे
और जब
स्कूल खुलने के महीनों बाद भी
कोर्स की किताबें और स्कूल-फीस
पास न होने के कारण
उनके बच्चे क्लास से
जलील करके निकाल दिये जाते रहे
या फिर
जब मकान का किराया
समय पर जमा न होने पर
मकान-मालिक
दो मिनिट में मकान ख़ाली करा लेने
के लिए धमकाते रहे
और जब पुरानी उधारी
चुकता न हो पाने के कारण
हमारे थैले
परचून की दुकान से
ख़ाली वापस आते रहे
तब उन्हें तुम से नफ़रत हो गयी
अब मेरे माँ-बाप
नहीं देखना चाहते
तुम्हें मेरे साथ
एक पल के लिए भी
इसलिए जाओ, हाँ जाओ
मेरी प्रियतमा ईमानदारी जाओ
तुम किसी और की हो जाओ
मैं तुम्हें भूल जाऊँ
तुम मुझे भूल जाओ
मेरी दुआ है
तुम जहाँ भी रहो
सुखी रहो
निरन्तर उन्नति करो
तुम्हें लोग हाथों हाथ लें
प्रेम की सीमा तक
प्रेम करें
तुम्हें सम्मानित करने वालों की संख्या
दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती जाये
और तुम्हें ठुकरा कर
अपमानित करने वालों में
यह शख़्स ‘अकेला’ रह जाये
हाँ, सिर्फ़ ‘अकेला’ रह जाये ।
<poem>