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कमी हौसलों में जिगर की नहीं
मिटा दे किसी की वो हस्ती नहीं

मैं तलवार चाहूं न तीरों-कमां
कलम से पड़ी मार कटती नहीं

सलीका अगर बात करने का हो
सुनी बात कैसे वो जाती नहीं

चलो अब चलें दूर बस्ती से हम
तबीयत न जाने क्यूं लगती नहीं

भरोसे कि बातें न" आज़र" करो
लबों पे तुम्हारे ये जचती नहीं
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