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मेहरबाँ रोशनी / मख़्मूर सईदी

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रोशनी !
ऐ मेरे जिस्मो-जाँ जगमगाती हुई मेहरबाँ रोशनी !
दफ़अतन किसलिए मुझपे य’ बेरुखी
मैं, कि तेरे लिए दूर का अजनबी
जिन अंधेरों से आया हूँ तेरी तरफ़
वो अंधेरे बुलाते हैं अब भी मुझे
(किस क़दर प्यार से, कितने अस्रार से)
उन अंधेरों में फिर लौट आऊँगा मैं
तू मिली थी कभी भूल जाऊँगा मैं
रोशनी !
मेहरबाँ रोशनी !!
</poem>
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