भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशीला पुरी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> आज ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुशीला पुरी
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
आज जब पिता नहीं हैं
अम्मा कुछ ज्यादा ही
जोड़ -घटाव करती हैं
रात-दिन, उन दिनों का,
पिता की चौहद्दी में
वे कभी भारहीन, भयमुक्त न थीं
वहाँ मुकदमों की अनगिनत तारीखें थीं
या फिर फसल की चिंताएँ
बुहारते ही बीता उन्हे -
अनिश्चय , अकाल,
हाँ, जब -जब नाना आते थे
जरूर तब हंसती थीं अम्मा
वेवजह भी ओढ़े रहती थीं मुस्कान
पिता भी तब बरसते नहीं थे उनपर
कुछ दिन संतुलित रहती थी हवा
थोड़े दिनों के लिए ही सही
अम्मा को भी अपना नाम याद रहता था ,
उन्हे याद आती है -
पीतल की वह थाली
जिसे पटक दी थी पिता ने
दाल मे नमक ज्यादा होने पर
अब भी गूँजती रहती है घर में
थाली के टूटने की आवाज़
उन टुकड़ों को अब भी
जब -तब बीनती रहती हैं अम्मा ...।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=सुशीला पुरी
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
आज जब पिता नहीं हैं
अम्मा कुछ ज्यादा ही
जोड़ -घटाव करती हैं
रात-दिन, उन दिनों का,
पिता की चौहद्दी में
वे कभी भारहीन, भयमुक्त न थीं
वहाँ मुकदमों की अनगिनत तारीखें थीं
या फिर फसल की चिंताएँ
बुहारते ही बीता उन्हे -
अनिश्चय , अकाल,
हाँ, जब -जब नाना आते थे
जरूर तब हंसती थीं अम्मा
वेवजह भी ओढ़े रहती थीं मुस्कान
पिता भी तब बरसते नहीं थे उनपर
कुछ दिन संतुलित रहती थी हवा
थोड़े दिनों के लिए ही सही
अम्मा को भी अपना नाम याद रहता था ,
उन्हे याद आती है -
पीतल की वह थाली
जिसे पटक दी थी पिता ने
दाल मे नमक ज्यादा होने पर
अब भी गूँजती रहती है घर में
थाली के टूटने की आवाज़
उन टुकड़ों को अब भी
जब -तब बीनती रहती हैं अम्मा ...।
</poem>