भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
 
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला
कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
 
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला
ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
 
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला
सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
 
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला
जहाँ पर ज़िन्दगी की , यूँ कहें खैरात बँटती थी
 
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
 
</poem>
112
edits