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/* आत्मकथा का लेखन जेल में */
== आत्मकथा का लेखन जेल में ==
प्रिवी कौन्सिल से अपील रद्द होने के बाद फाँसी की नई तिथि १९ दिसम्बर १९२७ की सूचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल को दे दी गयी थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा, जिसे उन्होंने निज जीवन की एक छटा नाम दिया था,पूरी करने में दिन-रात डटे रहे,एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये। उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी तभी तो उन्होंने आत्मकथा में एक जगह उर्दू का यह शेर लिखा था -
'''"क्या हि लज्जत है कि रग-रग से ये आती है सदा,'''
''' दम न ले तलवार जब तक जान 'बिस्मिल' में रहे।"'''
जब बिस्मिल को प्रिवी कौन्सिल से अपील खारिज हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने अपनी एक गजल लिखकर गोरखपुर '''जेल से बाहर भिजवायी जिसका मत्ला (मुखड़ा) यह था -
'''"मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या!'''