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Kavita Kosh से
|रचनाकार=मंगलेश डबराल
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किसी को छूने पर पहली बार छूने जैसा धीमा कंपन महसूस होता.
एक दिन वह हमसे कहीं खो गयी. कहना कठिन है कि यह कैसे हुआ.<br />इसका पता तब चला जब हमारे भारी और सख़्त हो गये और<br />स्पर्श की ज़गह सिर्फ़ एक चिपचिपाहट बची रही. अक्सर लगता है<br />कि वह चीज़ यहीं कहीं है हालाँकि उसकी खोज में हम काफ़ी ख़ाक<br />छान चुके हैं और अक्सर झल्लाते रहते हैं. खोयी हुई चीज़ों का अपना<br />एक जीवन है जो मिठास से भरा हुआ है और वे आपस में इतना<br />घुल-मिल कर रहती हैं कि यह पहचानना लगभग असंभव है कि वह<br />चीज़ कहा है.
१९९२
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