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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
ठीक नहीं है तबीयत मेरी इन दिनों
यह कहा है डॉक्टर ने मुझे
खाना कम खाओ
अधिक ग़म खाओ
सुबह, सूरज की एक बूँद
आधा गिलास पानी के साथ
और रात को सोते समय
चम्मच भर चाँदनी, बिना पानी के
अगर हो सके तो
एक मुट्ठी छाँव की
थोड़ी-सी मिट्टी गाँव की
मिला के करना मालिश
सूख गये हैं कुछ पेड़ आम के
चिड़ियों का चहकना नीलाम हुआ क्या?
बिक गई क्या बच्चों की मुस्कुराहट भी?
एक नया अनाथालय जन्मा फिर
फिर जवान हो गया वृद्धाआश्रम
किसी का पेट भरा हो या भूखा
कोई प्लेटफॉर्म पर सोये या पार्क में
उसे क्या मतलब?
कोई गरीब है, परेशान है
कहीं माथे पर सिन्दूर नहीं
किसी के घर में तन्दूर नहीं
वह क्यों पूछने जाए?
क्या है तुम्हारा दुख?
वह जिसे जानता नहीं
अंधेरा खेलता है साथ उसके
एक खेल है पतंग-सा
जब चूमता है कोई आकाश को
वह दाँतों से काटता है साँस को
सर पटकती है सूखी इच्छाएँ
ओस से बुझती है प्यास अनुभव की
धीमी आँच पर आँखें पिघलती है
करवटें लेता है स्वप्न-सा कुछ
देखता हूँ तब भी, अब भी देखता हूँ
अब भी लाल है लहू
बदन में दफ़्न है सिहरन
पानी अब भी गीला है
गगन ही रास्ता था तब
तलवे घायल हैं, तारा चुभा शायद
चाँद था कि जली रोटी थी माँ के हाथ में
मेरे होठों पर था खून का धब्बा
फेर लिया गीला तौलिया यूँ ही
टेबल पर पड़ी है बाबूजी की चिट्ठी
अगर समय होता अवश्य पढ़ता
क्यों सोचने लगा हूँ ऐसी बातों को
ऐसी बातें क्यों मुझे सोचती है
कोई मरता है तो मरे
कोई रोता है तो रोए
मुझे क्या?
मैं तो डॉक्टर की सलाह मानूँगा
बीतते हुए पलों से जीवन छानूँगा
ठीक नहीं है तबीयत मेरी इन दिनों
यह कहा है डॉक्टर ने मुझे।
<Poem>
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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
ठीक नहीं है तबीयत मेरी इन दिनों
यह कहा है डॉक्टर ने मुझे
खाना कम खाओ
अधिक ग़म खाओ
सुबह, सूरज की एक बूँद
आधा गिलास पानी के साथ
और रात को सोते समय
चम्मच भर चाँदनी, बिना पानी के
अगर हो सके तो
एक मुट्ठी छाँव की
थोड़ी-सी मिट्टी गाँव की
मिला के करना मालिश
सूख गये हैं कुछ पेड़ आम के
चिड़ियों का चहकना नीलाम हुआ क्या?
बिक गई क्या बच्चों की मुस्कुराहट भी?
एक नया अनाथालय जन्मा फिर
फिर जवान हो गया वृद्धाआश्रम
किसी का पेट भरा हो या भूखा
कोई प्लेटफॉर्म पर सोये या पार्क में
उसे क्या मतलब?
कोई गरीब है, परेशान है
कहीं माथे पर सिन्दूर नहीं
किसी के घर में तन्दूर नहीं
वह क्यों पूछने जाए?
क्या है तुम्हारा दुख?
वह जिसे जानता नहीं
अंधेरा खेलता है साथ उसके
एक खेल है पतंग-सा
जब चूमता है कोई आकाश को
वह दाँतों से काटता है साँस को
सर पटकती है सूखी इच्छाएँ
ओस से बुझती है प्यास अनुभव की
धीमी आँच पर आँखें पिघलती है
करवटें लेता है स्वप्न-सा कुछ
देखता हूँ तब भी, अब भी देखता हूँ
अब भी लाल है लहू
बदन में दफ़्न है सिहरन
पानी अब भी गीला है
गगन ही रास्ता था तब
तलवे घायल हैं, तारा चुभा शायद
चाँद था कि जली रोटी थी माँ के हाथ में
मेरे होठों पर था खून का धब्बा
फेर लिया गीला तौलिया यूँ ही
टेबल पर पड़ी है बाबूजी की चिट्ठी
अगर समय होता अवश्य पढ़ता
क्यों सोचने लगा हूँ ऐसी बातों को
ऐसी बातें क्यों मुझे सोचती है
कोई मरता है तो मरे
कोई रोता है तो रोए
मुझे क्या?
मैं तो डॉक्टर की सलाह मानूँगा
बीतते हुए पलों से जीवन छानूँगा
ठीक नहीं है तबीयत मेरी इन दिनों
यह कहा है डॉक्टर ने मुझे।
<Poem>