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/* क्या लिखूं */ नया विभाग
मिं आपंण भितर
मिं `लौ´।
== क्या लिखूं ==
क्या दे सकता हूं मैं
किसी को भी ?
वही,
जो-
मुझे मिला है
दुनिया से।
क्या सुना सकता हूं मैं
किसी को भी ?
वही, जो-
पढ़-सुन, समझ
रखा है यहीं से।
क्या लिख सकता हूं मैं
तुम्हारे लिऐ ?
वही,
जो-
तुमने, या किसी और ने
कहीं-कभी
कहा होगा
अथवा लिखा होगा
जरूर ही।
अन्यथा-
कहां से लाउंगा मैं
कुछ, तुझे देने को,
क्या सुनाउंगा तुम्हें नयां ?
क्या लिखुंगा तुम्हारे लिऐ
अलग ही
इस दुनिया से।
मैं परमेश्वर तो नहीं हूं नां।
मूल कुमाउनी कविता :
कि दि सकूं मिं
कैकैं लै ?
वी,
जि-
मकें मिलि रौ
दुनीं बै।
कि सु नई सकूं मिं
कैकैं लै ?
वी,
जि-
पढ़ि-सुणि-गुणि
राखौ यैं बै।
कि ल्येखि सकूं मिं
त्वे हुं ?
वी,
जि-
त्वील, कि कैलै
कत्ती-कबखतै
कौ हुनलै
कि ल्यख हुनल
जरूड़ै।
अतर-
कॉ बै ल्यूंल मिं
के, तुकैं दिंण हुं,
कि सुणूंल तुकैं नईं ?
कि ल्यखुंल त्वे हुं
अलगै
य दुनी है !
मिं के परमेश्वर जै कि भयूं ।