भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
सदा अंत इसका रहा दु:खदाई
महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
रहे शुद्ध-मन, शुद्ध-तन, शुद्ध-चिंतन
अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
सुखद खूब होती अहिंसा की रोटी
नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
</poem>