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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
जब कोई उसपे जान देने लगे
जान की वो अमान देने लगे

आँख बिस्तर पे उस घडी झपकी
जब परिन्दे अज़ान देने लगे

उसके लहज़े में धार आने लगी
लफ़्ज़ दिल पर निशान देने लगे

टूट जाये न बदन का कसाव
तीर को क्यों कमान देने लगे

आओ बाहर ज़रा टहलकर आयें
अब ये बिस्तर थकान देने लगे

मेरी ग़ज़लें समझ में आने लगी
अब इधर भी वो ध्यान देने लगे
<poem>