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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
वाक़या है या के तेरा ज़िक्र अफ़सानों में है
बात कुछ तो है के तू अख़बार के ख़ानों में है

निस्फ़ शब<ref> आधी रात</ref> तो ग़र्क़ मेरी जमों-पैमानों में है
और बाक़ी जो है वो तस्बीह <ref>जाप की माला</ref> के दानों में है

हम मतन <ref>मूल उद्धरण</ref> पढ़ते रहे लेकिन अब आया ये दिमाग़
लुत्फ़ तो सारे का सारा हाशिया ख़ानों में है

यूँ नहीं, अब इन लबों को भी तो ज़हमत दीजिये
क्यों घुमें ये हाथ क्यों जुंबिश तिरे शानों में है

क्या कहें इसको, सरे मक़तल<ref> वधस्थल </ref> था जो ख़ंजर बकफ़
वो बरहना सर हमारे मरसिया ख़्वानों में है

सर बकफ़ <ref>हथेली पर सर</ref> फिरता हूँ शहर में तनहा, के सुन
ख़ौफ़ कैसा जब के वो मेरे निगहबानों में है
<poem>
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