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|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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गेसू घटा हैं बर्क़ नज़र में समाई है
अबे बहार साँस के झोंकों से आई है

इठला के आके सामने पायल बजाई है
ईमां पे बन पड़ी है क़यामत वो ढाई है

सहमे हुए हैं लफ़्ज़ ब उन्वाने-अर्ज़े शौक
पहले पहल किसी से मेरी आशनाई है

बचपन की एक झेंपी सी तस्वीरे-हुस्न आज
अहसासे-शायरी में जवाँ होके आई है

रग-रग में जैसे लम्स की कलियाँ चटक उठें
रह रह के हर नफ़स में वो यूँ मुस्कुराई है

निकले अभी नहीं है परो-बाल भी मगर
बांधा है वो ख़्याल फ़ज़ा थरथराई है

डर है कि ज़ाहिदों का न ईमान डूब जाये
काफ़िर के मुद्दआ में बला की सफ़ाई है

ऐसी ही बात थी न ख़ुदा से कही गई
जा-जा के बस मज़ार पे चादर चढ़ाई है

कांटों पे चल के पाँव रंगे है कोई ‘अना’
तुम ये समझ रहे हो कि मेंहदी रचाई है
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