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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
आँखों में पढ़ रहा है मोहब्बत के बाब<ref>अध्याय</ref> को
पानी में देखता है कोई आफताब को

बस यूँ समझिये शौके़-तलब के इताब<ref>गुस्सा</ref> को
शोलों पे रख दिया है शगुफ़्ता गुलाब को

जोबन को, बांकपन को, हया को, शबाब को
आँखों से पी रहा हूँ छलकती शराब को

शरमा रहा है छूके तिरा जिस्म किस तरह
नज़रे उठा के देख ज़रा माहताब को

इक उम्र तेरी राह में बरबाद कर चुका
इक उम्र रह गई है हिसाबो-किताब को

फानी<ref>नश्वर</ref> हूँ मैं हकीर<ref>तुच्छ</ref> हूँ कुछ भी नहीं हूँ मैं
मैं क्या करूँगा ले के अज़ाबो-सवाब<ref>पाप-पुण्य</ref> को

जो अ़क्स इसमें आया उतरता चला गया
आखि़र मैं क्या करूँ दिले-खाना ख़राब को

अबके तिरा सनम भी जवाँ हो चला ‘अना’
सरका के झाँकता है ग़ज़ल के हिजाब को
<poem>
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