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भ्रष्ट / विनीत उत्पल

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<Poem>
मेरी मानवीय संवेदनाएं खत्म हो रही हैं
भावनाओं की कसमसाहट अब नहीं बहती रगों में
वो आक्रामकता, जज्बा मिट्टी में दफन हो गई
बस, जिंदा लाश बनकर रह गया हूं मैं

मुझे नहीं होती चिंता, न अपनों की आैर न ही परायों की
भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी के खिस्से मुझे आहत नहीं करते
खबरों के दुकान में बिकने वाली चीजें मुझे अकुलाहट पैदा नहीं करते
बस, मशीन बनकर रह गया हूं मैं

इश्क की तड़पन नहीं बची है मुझमें
अपनापन और परायेपन की परिभाषा भी नहीं मालूम
दिन और रात का फर्क नहीं है इस शहर में
बस, रास्ते का पथिक बनकर रह गया हूं मैं

आतंकी मुझे अपनों से लगते हैं
बम तो बस पटाखे से दीखते हैं
भूकंप और सुनामी से नहीं होते हैं रोंगटे खड़े
और न ही किसी आकाशी चीज से परेशान होता हूं

बस, डर लगता है तो उन सफेदपोश नेताओं से
जिसके बारे में लोग कहते हैं
कि वह सामाजिक सरोकार वाला है
कि वह भ्रष्टाचारी नहीं है
कि वह धोखेबाज नहीं है
कि वह अपराधी नहीं है
क्योंकि लोगों का चरित्र बदलता है चेहरा नहीं।
<Poem>
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